ओ३म्
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं दुकूलै:
सम इह परितोषो निर्विशेषो विशेषः।
स च भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला
मनसि च परितुष्टे कोsर्थवान् को दरिद्रः।।
श्लोक- भर्तृहरि वैराग्यशतकम्
हे राजन्! हम वृक्ष की छाल के वस्त्र धारण करने सन्तुष्ट हैं, तुम बहुमूल्य रेशमी वस्त्र धारण करके सन्तुष्ट हो। सन्तोष तो हम दोनों को बराबर का है, इसमें विशेष क्या है? दोनों के सन्तोष में कोई अन्तर नहीं है। दरिद्र तो वह है जिसकी इच्छाएं बड़ी बड़ी हैं, किन्तु मन यदि तृप्त हो तो कौन धनी और कौन दरिद्र ?
The person who has more desires is in fact the poorer one, The poet is satisfied wearing the tree-skins but the king needs valuable silks, The level of satisfaction is same for both, The basic parameter on which anyone's richness or poverty is decided (which is Money of course), is changed by the subhashitkar (poet)! If one's mind is satisfied then will there be any distinction between the rich and the poor?